श्रीमद्भगवद्गीता श्लोकार्थसहित ( अथ द्वितीयअध्याय: ) / Shrimad Bhagwat Geeta shlokarthsahit ( Aatha dwitiyaadhyay )
श्रीमद्भगवद्गीता श्लोकार्थसहित ( अथ द्वितीयअध्याय: ) / Shrimad Bhagwat Geeta shlokarthsahit ( Aatha dwitiyaadhyay )
ॐ
श्रीपरमात्मने नमः
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ द्वितीयअध्याय:
सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्नणा्कुलेक्षणमृ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:।।
अर्थ - संञ्जय बोले - उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आंसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोक युक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने यह वचन कहा।।१।।
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्व कश्मलमिदं विषमे समुपसि्थतम्।
अनार्यजुष्टमस्वग्र्यमकीर्तिकरमर्जुन ।।
अर्थ - श्रीभगवान बोले - हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु प्राप्त हुआ? क्योंकि ना तो यह श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा आश्रित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्तिको करने वाला ही है।।२।।
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्वय्युपपघते।
क्षुत्रं हृदयदौबृल्यं त्यक्तवोत्तिष्ठ परन्तप।।
अर्थ - इसलिऐ से अर्जुन! नपुंसकताको मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।।३।।
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सड्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभि: प्रतियोत्स्यामि पूजाहा्वरिसूदन ।।
अर्थ - हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूंगा? क्योंकि हे अरीसुदन! वे दोनों ही मेरे पूजनीय है ।।४।।
गुरुनहत्वा हि महानुभावा -
ञछेयो भोत्कं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञजीय भोगान्रधिरप्रदिग्धानृ।।
अर्थ - इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मार कर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याण कारक समझता हूं; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिरसे सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को भी तो भागूंगा ।।५।।
न चैतद्विघ: कतरत्रो गरीयो -
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु:।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम -
स्तेऽवसि्थता: प्रमुखे धार्तराष्टा:।।
अर्थ - हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और ना करना - इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा या भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिन को मार कर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं ।।६।।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता: ।
यच्छेय: स्यात्रिव्श्रितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहंशाधि मां त्वां प्रपत्रमृ।।
अर्थ - इसलिएये कायरतारूप दोष से उपहृत हुआ स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूं कि जो साधन निश्चित कल्याण कारक हो, वह मेरे लिए कहिए; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिए आपकी शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।।७।।
न हि प्रपश्यामि ममापनुघा -
घच्छोकमुच्छोषणमिन्दियाणामृ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्ध -
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यमृ।।
अर्थ - क्योंकि भूमिमें निष्कण्टक, धन-धान्यसंपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामी पने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूं, जो मेरी इंद्रियों के सुख आने वाले शोक को दूर कर सके।।८।।
संञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषिकेश गुड़ाकेश: परंतप ।
न योत्स्य इति गोविंदमुक्ता तूष्णीं बभूव ह ।।
अर्थ - संञ्जय बोले - हे राजन्! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान से ' युद्ध नहीं करूंगा ' यह स्पष्ट कह कर चुप हो गए ।।९।।
तमुवाच हृषिकेश: प्रहसत्रिव भारत।
सेनयोरृभयोमृध्ये विषीदन्तमिदं वचं।।
अर्थ - हे भारतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हंसते हुए-से यह वचन बोले।।१०।।
श्रीभगवानुवाच
अशोकच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्रृ नानुशोचन्ति पंडिता:।।
अर्थ - श्री भगवान बोले - हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्य के लिए शोक करता है और पंडितोंके-से वचनों को कहता है; परंतु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पंडित जन शौक नहीं करते।।११।।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं ने में जनाधिपा: ।
न चैव न भविष्याम: सवे् वयमत: परमृ ।।
अर्थ - न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा यह राजा लोग नहीं थे और ना ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।१२।।
देहीनोऽसि्मन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिधी्रस्तत्र न मुह्राति।।
अर्थ - जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।।१३।।
मात्रास्पशा्स्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु: खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांसि्ततिक्षस्व भारत।।
अर्थ - हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुख को देने वाले इंद्रिय और विषय के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य है, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर।।१४।।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।
अर्थ - क्योंकि है पुरुषश्रेष्ठ! दुख-सुखको समान समझने वाले जिस दिन पुरुषको यह इंद्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है।।१५।।
नासतो विद्यते भावो नाभावों विघते संत:।
उभयोरपि दृट्षोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदाशि्भि:।।
अर्थ - अस्तृ वस्तु की तो सत्ता नहीं और सत्तका का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।।१६।।
अविनाशी तू तद्वंदी येन सर्वमिदं ततमृ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमहृति।।
अर्थ - नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह संपूर्ण जगतृ-दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।।१७।।
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योत्का: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माघुध्यस्व भारत।।
अर्थ - इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के यह सब शरीर नाशवानृ कहे गए हैं। इसलिए हे भारतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर।।१८।।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतमृ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।
अर्थ - जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तव में ना तो किसी को मारता है और ना किसी के द्वारा मारा जाता है।।१९।।
न जायते म्रियते वा कदाचि-
त्रायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्चतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
अर्थ - यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और ना मरता ही है तथा ना यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी या नहीं मारा जाता।।२०।।
वेदाविनाशनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।
अर्थ - हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित नित्य, अजन्मा और अव्य जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किस को मारता है?।।२१।।
वासंसि जीणा्नि यथा विहाय
नवानी ग्रहाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीणा्
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
अर्थ - जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्याग कर दूसरे नए वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर दूसरे ने शरीरोंको प्राप्त होता है।।२२।।
नोनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।
अर्थ - इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं कल आ सकता और वायु नहीं सुखा सकती।।२३।।
अच्छेघोऽयमदाह्रोऽयमक्लेघोऽशोष्य एवं च।
नित्यं सवृगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:।।
अर्थ - क्योंकि यह आत्मा अच्छीघ है, यह आत्मा अदाह्रा, अक्लेघ और नि:संदेह अशोष्क से है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।।२४।।
अव्यत्कोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमहृसि।।
अर्थ - यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिंत्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपयुक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने को योग्य नहीं है अर्थात तुझे शोक करना उचित नहीं है।।२५।।
अथ चैनं नित्यजितं नित्यं वा मन्यते मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमहृसि।।
अर्थ - किंतु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मनेवाला तथा सदा मरनेवाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है।।३६।।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमहृसि।।
अर्थ - क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने को योग्य नहीं है।।२७।।
अव्यक्तदीनि भूतानि व्यक्तमध्यानी भारत।
अव्यत्कानिधानान्येव तत्र का परिदेवना।।
अर्थ - हे अर्जुन! संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट है; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?।।२८।।
आश्चर्यवत्श्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।
अश्चर्यवच्चैनमन्यं श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्वित्।।
अर्थ - कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता।।२९।।
दही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सवा्णि भूतानि न त्वं शोचितुमहृसि।।
अर्थ - हे अर्जुन! यह आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य है। इस कारण संपूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने के योग्य नहीं है।।३०।।
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमहृसि।
धम्र्याध्दि युद्धाच्छे्योऽन्यत्क्षत्रियस्य न विघते।।
अर्थ - तथा अपने धर्म को देखकर भी तू वह करने योग्य नहीं अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिए; क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है।।३१।।
यदच्छया चोपपत्रं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदऋशम्।।
अर्थ - हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार की युद्ध को भागवान् क्षत्रियलोग ही पाते हैं।।३२।।
अथ चेत्वमिमं धम्र्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
तत: स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।
अर्थ - किंतु यदि तू इस धर्म युक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।।३३।।
अकीर्तिं चांपि भूतानि
कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-
र्मरणादतिरिच्यते ।।
अर्थ - तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली आपकी कीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए आपकीर्ति मरण से बढ़कर है।।३४।।
भयाद्णादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।।
अर्थ - और जिन की दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महार थी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे।।३५।।
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता:।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दु:खतरं नु किम्।।
अर्थ - तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्यकी निंदा करते हुए तुझे बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दु:ख और क्या होगा?।।३६।।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौंन्तेय युद्धय कृतनिश्चय:।।
अर्थ - या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इस कारण ही अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय होकर खड़ा हो जा।।३७।।
सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।
अर्थ जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:खको समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू आपको नहीं प्राप्त होगा।।३८।।
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धियोगे त्विमां श्रृणु।
अर्थ हे पार्थ यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान योग के विषय में कहीं गई है और अब तू इसको कर्म योग के विषय में सुन जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भलीभांति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा।।
नेहाभिक्रमनाशोऽसि्त प्रत्यवायो न विघते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।
अर्थ - इस कर्म योग में आरंभ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है और उल्टा फल रूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्म योग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म मृत्यु रूप महान् भय से रक्षा कर लेता है।।४०।।
व्यवसायात्मिका बुद्बिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्रानन्ताश्च बुद्धयोऽव्यसायिनाम्।।
अर्थ - हे अर्जुन! इस कर्म योग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किंतु असि्थर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्योंकी बुद्धियां निश्चित ही बहुत भेदोंवाली और अनंत होती है।।४१।।
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।
वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:।।
कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगश्चर्यगतिं प्रति।
भोगेश्वर्यप्रसत्कानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते।।
अर्थ - हे अर्जुन! जो भोगो में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्म फल के प्रशंसक वेद वाक्यों में ही प्रति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्त्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है - ऐसा कहने वाले हैं, अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभा युक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्म फल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिन का चित्त लिया गया है, जो भूख और ऐश्वर्य में अत्यंत आसकते हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चय आत्मिका बुद्धि नहीं होती।।४२-४४।।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्दृन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।
अर्थ - हे अर्जुन! वेद उपयुक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भागो एवं अनेक साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं; इसलिए तू उन भागों एवं उनके साधनों में आसक्तहीन, हर्ष-शोकादि द्वंदो से रहित, नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित, योग-क्षेम को ना चाहने वाला और स्वाधीन अनंत:करण वाला हो।।४५।।
यावानर्थ उदपाने सवृत: सम्प्लुतोलके।
तावान्सवे्षु वेदेषु ब्राह्राणस्य विजानत:।।
अर्थ - सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्मा को तत्व से जानने वाले ब्रह्मांड का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है।।४६।।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मां कर्माफलहेतुभूर्मा ते सङो्ऽस्त्वकर्मणि।।
अर्थ - तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिए तू कर्मोंके फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ती ना हो।।४७।।
योगस्थ: कुरु कर्माणि सङि्त्यक्त्वा धनञजय।
सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
अर्थ - हे धनञ्जय! तू आसक्तिको त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धिमें समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्यकर्मोंको कर, सतत्व ही योग कहलाता है।।४८।।
दूरेण हावरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धा शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव:।।
अर्थ - इस समत्वरूप बुद्धि योग से सकाम कर्म अत्यंत ही निमृ श्रेणी का है। इसलिए हे धनञ्जय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात् बुद्धि योग का ही आश्रय ग्रहण कर; क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यंत दीन हैं।।४९।।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माघोगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।।
अर्थ - समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देते हैं अर्थात् इस से मुक्त हो जाता है। इसे तू समस्त रूप योग में लग जा; यह समस्त रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।।५०।।
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:।
जन्मबंदविनीमुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्।।
अर्थ - क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाते हैं।।५१।।
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिव्र्यतितरिष्यति।
तदा गंतासी निवे्दं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।
अर्थ - जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूप दलदलको भलीभांति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी लोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा।।५२।।
श्रुतिविप्रतिपत्रा ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।
अर्थ - भांति-भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब दू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात् तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा।।५३।।
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
सि्थतधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।
अर्थ - अर्जुन बोले - हे केशव! समाधिमें स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए सि्थरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है ? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ।।५४।।
श्रीभगवानुवाज
प्रजहति यदा कामान्सवा्न्पार्थ मनोगतिन्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट सि्थतप्रज्ञस्तदोच्यते।।
अर्थ - श्रीभगवान् बोले-हे अर्जुन! जिस कालमें यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देगा और आत्मासे आत्मामें ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।।५५।।
दु:खेष्वनुद्विग्रमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: सि्थतधीर्मुनिरुच्यते।।
अर्थ - दु:खों की प्राप्ति होने पर उनसे मन में वेद नहीं होता, सुखों की प्राप्ति से सर्वदा नि:स्पृह है तथा जिसके रोग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है।।५६।।
य: सर्वज्ञानभिस्त्रेहस्तत्तप्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
अर्थ - जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर ना प्रसन्न होता है और ना द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है।।५७।।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङा्नीव सवृश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
अर्थ - और कछुआ सब ओर से अपने अङो्को को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इंद्रियों के विषय में इंद्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है ( ऐसा समझना चाहिए ) ।।५८।।
विषया विनीवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं द्वष्टा निवर्तते।।
अर्थ - इंद्रियों के द्वारा विषयोंको ग्रहण न करने वाले पुरुषके भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु उनमें रहने वाली आसक्ति निर्मित नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आ सकि्त भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है।।५९।।
यततो ह्मपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:।।
अर्थ - हे अर्जुन! आसक्ति का नाश ना होने के कारण ये प्रमथनस्वभाववाली इंद्रियां यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती है।।६०।।
तानि सवा्णि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठित।।
अर्थ - इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।।६१।।
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्स्तेषूपजायते।
सङात्सञ्जायते काम: कामातक्रोधोऽभिजायते।।
अर्थ - विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ती हो जाती है, आसकि्त से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघृ पङने से क्रोध उत्पन्न होता है।।६२।।
क्रोधाद्धवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
अर्थ - क्रोध से अत्यंत मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।।६३।।
रागद्वेषवियक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैवि्धेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।
अर्थ - परंतु अपने अधीन किए हुए अन्त:करण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेषसे रहित इंद्रियों द्वारा विषयोंमें विचरण करता हुआ अन्त:करण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।।६४।।
प्रसादे सवदु: खाना हानिरस्योपजायते।
प्रसत्रचेतसो ह्मशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते।।
अर्थ - अन्त:करण की प्रसन्नता होने पर इसके संपूर्ण दु:खोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्म योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भली भांति स्थिर हो जाती है।।६५।।
नास्ति बुद्धिरयुक्त न चायुक्तस्क्य भावना।
न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम्।।
अर्थ - न जीते हुए मन और इंद्रियों वाले पुरुष में निश्चयआत्मिक ता बुद्धि नहीं होती और उस आयुक्त मनुष्य के अंतः करण में भावना भी नहीं होती तथा भावना हीन पुरुष को शांति नहीं मिलती और शांतिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?।।६६।।
इंद्रीयाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।
अर्थ - क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों में से मन जिस इंद्रिय के साथ रहता है वह एक ही इंद्रिय इस आयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है।।६७।।
तस्मघस्य महाबाहो निगृहीतानि सवृश:।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:।।
अर्थ - इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इंद्रियां इंद्रियोंके विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई है, उसकी बुद्धि स्थिर है।।६८।।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागृर्ति संयमी।
यस्यां जागृति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:।।
अर्थ - संपूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान हैं, उस नित्य ज्ञान स्वरूप परमानंद की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान् सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तथ्यों को जानने वाले मुनि के लिए यह रात्रि के समान है।।६९।।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वतृ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सवे्
स शान्तिमाप्रोति न कामकामी।।
अर्थ - जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र उसको विचलित ना करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वहीं पुरुष परम शांति को प्राप्त होता है, भागों को चाहने वाला नहीं।।७०।।
विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहङा्र: स शांतिमधीगच्छति।।
अर्थ - जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्प्रहाररहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात् वह शांति को प्राप्त है।।७१।।
एषा ब्राह्री सि्थति: पार्थ नैनां प्राप्त्य विमुह्राति।
सि्थत्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्रानिवा्णमृच्छति।।
अर्थ - हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इस को प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अनंत काल में भी इस ब्रा ही स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है।।७२।।
नाम द्वितीयऽअध्याय: ।।२।।
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मुझे विश्वास है दोस्तों की आपको यह पोस्टश्रीमद्भगवद्गीता श्लोकार्थसहित ( अथ द्वितीयअध्याय: ) / Shrimad Bhagwat Geeta shlokarthsahit ( Aatha dwitiyaadhyay )बहुत ज्यादा पसंद आया होगा। क्योंकि इस पोस्ट में गीता के दूसरे अध्याय की संपूर्ण जानकारी है। इसमें श्लोक अर्थ सहित मौजूद है। तो दोस्तों मैं आप सब से यही गुजारिश करूंगा। कि गीता के श्लोकों को लोगों तक पहुंचाई। आप सभी का धन्यवाद🙏🙏🙏🙏
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