भारत की मातृभुमि – Bharat Ki Mathrbhumi ki Visheshtaye जानेंगे

भारत की मातृभुमि – Bharat Ki Mathrbhumi ki Visheshtaye जानेंगे



भारत विश्व का एक मात्र देश है जो देश को अपनी मां का दर्जा दिया है। भारत का हर शक्श चाहे वो किसी भी जाति या संप्रदाय का हों हर व्यक्ति मां की इज्ज़त करता है। 

तेजस्विनी भारतमाता -- हमारी भारतमता तेजस्विनी है, जिसकी प्रसंसा के गीत देवताओं ने भी गाये है। यह वह धरती है, जिसकी पूजा हमारे सभी संत-महात्माओं ने मातृभूमि, धर्मभूमि, कर्मभूमि, एवं पुण्यभूमि के रूप में की हैं। 

यह हमारी प्यारी भारतमाता है, जिसका नाम मात्र हमारे ह्रदय को शुद्ध और सात्विक बना देता है। हम सबकी मां यह हमारी तेजस्विनी मातृभूमि है।

भारत में जन्म लेना पुण्य है -- भारतभूमी हमारी मातृभूमि है। हमे इसे मातृभूमि कहने मे गर्व होता है। असाधारण विद्वानों की जन्मदायी, कला, साहित्य और विज्ञान की उश्रति में सर्वोच्च शिखर पर पहुंची हुईं भारत की महिला का वर्णन देवता भी आपने गीतों में गाते हैं। वे लोग धन्य हैं, जिन्होंने भारत में जन्म लिया। 

जन्मदात्री  मातृभूमि – मातृभूमि का संपूर्ण तथ्य


अवतारों की जन्मदात्री  मातृभूमि -- मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगिराज कृष्ण ने यहां अवतार लिया; राजा हरिचंद्र, दधिती, शिवि जैसे महापुरुषों का यहां अविभाव हुआ, जिन्होंने सत्य के पालन और वचन की रक्षा हेतु अपना सर्वोस्व न्योछावर कर दिया। भुवन मनमोहित, मस्तक पर हिमालय का मुकुट धारण करने वाली निर्मल जलधारिणी, जगतजननी भारतमाता हमारे पूर्वजों की धात्री है।

शास्त्रों की रचना मातृभूमि का गौरव -- इस मातृभूमि पर अनेक महाकाव्यों की रचना की गई, जिन्होंने देश-देशांन्तरों को ज्ञान, दर्शन और संस्कृति का प्रकाश विश्व में फैलाया क्योंकि लेखक के अनुसार 'जीवन के विटप का पुष्प और संस्कृति' हैं।

वेदों का श्रृजन यहीं पर तपोमन में हुआ। ज्ञान और धर्ममयी काव्यगथाएं आरंभ से ही इसी भारतभूमि के वन प्रान्तरों में हुईं।

 इसी महिमामयी, मानव मात्र को कल्याण का संदेश देने वाली 'भारतमाता की जय' कहकर लेखक ने प्रत्येक भारतवासी का नमन इस निबंध के माध्यम से भारतमाता के चरणों में पहुंचाया और कामना की है की ऐसी  मातृभूमि की हम सब जय-विजय करे, क्योंकि यही मातृभूमि हम सबकी पा्णसि्थति का कारण है।

मातृभूमि वात्सल्यपूर्ण है -- यह मातृभूमि माता की तरह संतानों का पोषण करती है। जिस तरह माता दूध का विसर्जन करती है, उसी प्रकार दूध और अमृत से परिपूर्ण मात्रभूमि अनेक दूग्धधाराऔं से राष्ट्र के जन का कल्याण करती है। लेखक ने इस भूमि को कामदुधा कहा है। मात्रभूमि विश्वंभरा है। 

मात्रभूमि सत्य के प्रकाश से प्रकाशित है -- भारतीय मनीषियों ने इस भूमि के आपने हृदय के दर्शन ध्यान द्वारा किए हैं। इसी मे उन्होंने सत्य के प्रकाश को प्राप्त कर पूरे विश्व में इसकी आध्यात्मिक ज्योती फैलाई है।

मात्रभूमि प्रेम और अध्यात्म का सुंदर समन्वय है -- विश्व में प्रेम और अध्यात्म का संदेश देने वाली मात्रभूमि है। आज भी चिंतन से युक्त मनीषी मातृभूमि के नूतन सौंदर्य, नवीन आदर्श और अछूतेरस का आविष्कार किया करते हैं।

मात्रभूमि का भौगोलिक रूप आकर्षण भी -- मात्रभूमि के भौगोलिक रूप में पर्वतों की श्री सुषमा से सज्जित, सागरो की मेखला से अलंकृत स्वरूप में सौंदर्य बिखरा पड़ा है। प्राकृतिक शोभा के प्रती आकर्षण भी मात्रभूमि के प्रति हमारे प्रेम को गहरा करता जाता है।

पर्वतों का अनूठा सौंदर्य -- मात्रभूमि का तिलक करने के लिए विधाता ने सबसे ऊंचे पर्वत हिमालय को मुकुट के रुप में मस्तक पर स्थित कर दिया। इन पर्वतों पर चढ़कर हमारी संस्कृति का यश हिमालय के उस पार प्रदेशों में भी फैला।

मात्रभूमि की नदियों का सौंदर्य -- हिमालय के कठिन शैली को चीरकर यमुना, जाहृवी, भागीरथी, मंदागिनी और अलकनंदा ने केदारखंड में तथा सरयू, काली, कणाली ने मानसखंड में तथा गंगा जैसी पवित्र, पपनाशिनी नदियां मात्रभूमि का गौरव बढ़ाती हैं।

मात्रभूमि की मिट्टी की महिमा -- चित्र-विचित्र शिलाओ से निर्मित भूरी, काली, लाल रंग की मिट्टी पृथ्वी के विश्वरूप की परिचायक है। यह मिट्टी वृक्ष, वनस्पति, औषधियों को उत्पन करती है। इस मिट्टी में अदभुत रसायन है, जो समस्त चराचर को नवजीवन प्रदान करती है। 

मात्रभूमि की जीवन-रक्षक वन सम्पदा -- हमारी भूमि पर घने जंगल है, जिनमे अनेक प्रकार की वीय़वती औषधियोआं प्राप्त होती है। बा्ही रुद्रवंती, स्वणृक्षीरी, सौपणीं, शंखपुस्पी जैसी अनेक औषधियों हैं, जिनमे जीवन-रक्षक तथा तन-मन को स्वच्छ बनाने की शक्ति है।


मात्रभूमि का वनस्पति जगत -- देवदारू, न्यग्रोथ, आंवला, आम्र, अश्वत्थ, उदुंबर और शाल जैसे अनेक वृक्षों की हमारे यहां पूजा की जाती है। सौ फुट ऊंचे और तीस फुट घेरे वाले केदार तथा देवदारु को देखकर प्रत्येक भारतीय का मन श्रद्धा से लहराने लगता है। केदार वृक्षों के पास बसने के कारण स्वयं शिव ने केदारनाथ नाम स्वीकार किया। 

गाय को माता का आदर -- हमारी भूमि की पशु संपत्ति भी मनुष्य की भांति आदर का केंद्र रही है। इस भूमि पर आश्वो को भी श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। गाय को हमारे यहां माता का सम्मान इसलिए प्राप्त है, क्योंकि यह हमारे शरीर के प्रत्येक अणु का दूध, घी और अन्न्न से पोषण करती है। 

मात्रभूमि की रत्न-सम्पदा -- स्वणृ, मणिरत्न आदि निधियों ने न केवल मातृभूमि का सौंदर्य बढ़ाया बाल्की विश्व का भरण भी किया है। रत्नों का वितरण करने वाली वसुधा प्रेम और प्रसनंता प्रदान करती है।

Bharat Ki Mathrbhumi ki Visheshtaye In Hindi 


मात्रभूमि का स्थुल विश्व रुप -- वासुदेवशरण अग्रवाल ने आपने निबंध 'मात्रभूमि' में सम्पूर्ण पृथ्वी को मात्रभूमि नाम देकर उसको विराट रुप का वर्णन किया है। जिस तरह मां आपने बच्चों का पालन अपनी ममता की छाया में करती है।

उसी तरह ये पृथ्वी आपने जियवधारियो का पालन-पोषण करती है परंतु लेखक के अनुसार किसी वस्तु को दिखने की आपनी-अपनी दृष्टि हैं। स्थुल नीत्रो से दिखने वालों के लिए यह पृथ्वी शिलाभूमि और पत्थर-धूलि का केवल एक जमघट है।

किन्तु जो मनीषी है, जिनके पास धयान का बल है, वे ही भूमि के हृदय को देख पाते हैं। उन्ही के लिए मात्रभूमि का अमर रूप प्रकट होता है। किसी देवयुग में यह भूमिसलिलाणृव के नीचे छिपी हुई थी। जब मनीषियों ने धायनपुवृक इसका चिंतन किया, तब उनके ऊपर कृपावती होकर यह प्रकट हुई।

केवल मन के द्वारा ही पृथ्वी का सानिध्य प्राप्त किया जा सकता है। ऋषि के शब्दों में, मात्रभूमि का हृदय परम व्योम में स्थित है। विश्व में ज्ञान का जो सर्वोत्तम स्रोत है, वहीं यह ह्रदय है। यह हृदय सत्य से घिरा हुआ अमर है। हमारी संस्कृति में सत्य का जो प्रकाश है, उसका उदगम मात्रभूमि के हृदय से ही हुआ है। 

सत्य आपने प्रकट होने के लिए धर्म का रूप ग्रहण करता है।
सत्य और धर्म एक है। पृथ्वी धर्म के बल से टिकी हुई है। महासागर से बाहर प्रकट होने पर जिस तत्व के आधार पर पृथ्वी आश्रित हुई, कवि की दृष्टि में वह धारात्मक तत्व धर्म है। 

इस प्रकार के धारणात्मक महान धर्म को पृथ्वी के पुत्रों ने देखा और उसे प्रमाण किया। सत्य और धर्म ही एतिहासिक युगों में मातृमान होकर राष्ट्रिय संस्कृति का रूप ग्रहण करते है। संस्कृति का इतिहास सत्य से भरे हुए मातृभूमि के हृदय की ही व्याख्या है। जिस युग में सत्य का रूप विक्रम से संयुक्त  होकर सुनहरे तेज से चमकता है, वही संस्कृति का स्वणृ-युग  होता है।

कवि की अभिलाषा है -"हे मातृभूमि! तुम हिरण्य के संदशृन से हमारे सामने प्रकट हो। तुम्हारी सुनहरी प्रोचानाओं को हम देखना चाहते हैं। युगविशेष मेंराष्ट्रीय महिमा की नाप यही है कि युग की संस्कृति में सुवर्ण की चमक है या चांदी या लोहे की। हिरण्य-संदशृन या स्वणृयुग ही संस्कृति की स्थायी विजय के युग हैं।"



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